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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 हिन्दी - साहित्यशास्त्र और हिन्दी आलोचना

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2784
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 हिन्दी - साहित्यशास्त्र और हिन्दी आलोचना- सरल प्रश्नोत्तर

2. आधुनिक साहित्य - नयी मान्यताएँ : आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

प्रश्न- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि "आधुनिक साहित्य नयी मान्यताएँ" का उल्लेख कीजिए।

अथवा
आधुनिक साहित्य नयी मान्यताएँ" विषय पर हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचनात्मक दृष्टि की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की साहित्य की नयी मान्यताओं पर विचार करने के पहले यह स्पष्ट है कि साहित्य की नयी मान्यताएँ जीवन की नयी मान्यताओं में विच्छिन्न नहीं हैं। हमारा आधुनिक साहित्य यूरोपियन सम्पर्क के बाद ही विकसित हुआ है। सौभाग्यवश जिन दिनों अंग्रेजी साहित्य के साथ भारतवर्ष का सम्पर्क हुआ, वह काल अंग्रेजी भाषा के इतिहास का बहुत ही समृद्धकाल था। उन दिनों जड़ विज्ञान नित्य नये यन्त्रों को उत्पन्न कर रहा था और ये सुधरे विकसित यन्त्र नित्य नवीन सम्पत्ति से उस देश को सम्पन्न बना रहे थे। यद्यपि इसकी भूमिका सोलहवीं शताब्दी से ही तैयार हो रही थी- क्योंकि उन्हीं दिनों धर्म और कला के साथ लोक - चित्त को प्रभावित करने वाला वह नया शास्त्र जन्म ले रहा था। जिसे विज्ञान कहा जाता है- पर। 1९ वीं शताब्दी के पहले वह इनका सच्चा प्रतिद्वन्द्वी नहीं बन सका था। इस शताब्दी में प्रत्येक सुसंस्कृत व्यक्ति के चित्त पर इसका प्रभाव पड़ा और उन्नीसवीं शताब्दी में वह नाना ऐतिहासिक शक्तियों के दबाब से सुविधा भोगी वर्ग के हाथ से सरक कर साधारण जनता के हाथ में आ गया। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे चरण में यूरोप के विज्ञान की अनेक मानसिक और भौतिक शाखाओं का युगपत् और समानान्तर विकास हुआ। जो आगे चलकर बहुत से ऐतिहासिक परिवर्तनों और विचारगत उथल-पुलि का कारण बना। इन दिनों यूरोपीय विचारों में बड़ी घोर मंथन हुआ और मानवीय विचारों और क्रियाओं के मूल्यों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। इन्हीं दिनों समस्त जागतिक व्यापारों में एक व्यापक नियम और सामंजस्य खोजने की दुर्दम जिज्ञासा - वृत्ति का जन्म हुआ। अन्त में डार्विन ने जीवविज्ञान के क्षेत्र में विकासवाद का प्रतिपादन किया, जिसे सच्चे अर्थों में आधुनिकता की नींव कहा जा सकता है। इसने हर क्षेत्र में मनुष्य को नयी दृष्टि दी। डार्विन के विचारों से ही सूत्र पाकर स्पेंसर ने समस्त जागतिक व्यापारों की विकास-परम्परा को स्पष्ट और प्रतिष्ठित करने वाले तत्वबाद की स्थापना की। यहाँ से विज्ञान ने मनुष्य की सम्पूर्ण विचारधारा पर प्रभुत्व स्थापन की। आज शायद ही कोई ऐसा ज्ञान विज्ञान हो जिसे इस विकासवाद के सहारे समझने का यत्न न किया जाता हो। सब प्रकार के आध्यात्मिक दर्शन, सब प्रकार की अलौकिक समझी जाने वाली सौन्दर्य भावना और रस संवेदना, सब प्रकार की कर्म प्रणालियाँ इसकी लपेट में आ गयीं। साहित्य के विविध तत्त्व - छन्द, अलंकार, शैली, भाषा, प्रतिपादन — इस सिद्धान्त के सहारे अधीन और व्याख्यात हुए। यहीं से मनुष्यों ने विचारों के इतिहास की बात सोची, भावनाओं के क्रम विकास का अध्ययन शुरू किया और मानस ग्रन्थियों की ऐतिहासिक विकास परम्परा को समझने का प्रयत्न किया। यहाँ से साहित्य को नये रूप में देखा जाने लगा, उसके प्रगमन और प्रतिगमन के कारणों पर विचार किया जाने लगा और उसके सम्बन्ध में नयी दृष्टि मिली।

विकासवाद का सिद्धान्त - आजकल प्रायः सर्वस्वीकृत सिद्धान्त है। इस सृष्टि प्रक्रिया को इस दृष्टि से देखने वाले को यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जायेगी कि मनुष्य के रूप में हो सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी विकसित हुआ है। मनुष्य देह में ही मन और बुद्धि का भावावेग और तर्क- युक्ति के आश्रय इन्द्रिय विशेष का विकास हुआ है। यह संसार क्या है और कैसा है इसके जानने का एकमात्र साधन मनुष्य की बुद्धि है। हम जो कुछ समझ रहे हैं और जो कुछ समझ सकते हैं, सब मनुष्य का समझा - हुआ सत्य है। मनुष्य निरपेक्ष सत्य बात-की- वात है। इस जगत् मंग जो कुछ सत्य है वह मनुष्य सृष्टि में देखा हुआ सत्य है, अतः मानव सत्य है। इसीलिए मनुष्य की मर्यादा, उसकी महिमा और उसके विचारों का मूल्य अपार है। इन्हीं विचारों ने उस विचार भंगिमा को जन्म दिया जिसे 'न्यू लैमेनिज्म' या नव मानवतावाद नाम दिया गया है।

चाहे व्याकरण हो या ज्योतिष, छन्द हो या अलंकार सभी विचारधाराएं इस यज्ञ याग की क्रियाओं को ठीक-ठीक सम्पादित करने के उद्देश्य से प्रवर्त्तित हुई। बाद में इन्होंने स्वतन्त्र शास्त्रों का रूप लिया। परवर्ती काल में यद्यपि सभी शास्त्र किसी न किसी बहाने श्रुतिसम्मत यज्ञ- योग प्रक्रिया के साथ अपना सम्बन्ध बताते रहें, पर वस्तुतः वे उनमें विच्छिन्न हो गये थे। गुप्तकाल में एक बार पुनर्जागरण अवश्य हुआ और श्रुतिसम्मत क्रियाएँ अधिक दृढ़ता से याद की जाने लगी। लेकिन तब तक गंगाजी का बहुत पानी समुद्र में मिल चुका था और धर्म और विश्वास के क्षेत्र में मनुष्य रूप की प्रतिष्ठा स्वीकृत हो चुकी थी। इस युग के काव्य और शिल्प में देव देवियाँ निखरे हुए रूप मानव सौन्दर्य के भीतर से प्रकट हुई। देवता का मनुष्य रूप जिस मोहक और महनीय रूप में इस युग में प्रकट हुआ वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। शास्त्र और काव्य, दोनों में ही देवता का नाम लिया जाता रहा, पर मनुष्य ही वास्तविक प्रतिपाद्य था। श्रुति और आप्त वाक्य की महिमा बनी रही, पर मनुष्य की बुद्धि ही अधिक प्रमाण्य समझी गयी। क्योंकि श्रुति वाक्यों में कौन-सा विधि परक है और कौन सा अर्थवाद, इन बातों के निर्णय की कसौटी मनुष्य बुद्धि को ही समझा जाता था। मनुष्य रूपी देवता का और भी व्यापक रूप मध्यकाल के अन्त में आया, जब भगवान के नर रूप की लीला ही सब प्रकार के साहित्य, शिल्प और नृत्य गीत का आश्रय बनी।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "भक्ति का पूरा साहित्य भगवान् की नर रूप की लीला को आश्रय करके बना है, वहीं से वह प्रेरणा पाता रहा है। आगे चलकर हर देवता के अवतार की कल्पना की गयी। भगवद् भक्त महात्माओं को भी किसी न किसी पुराने आचार्य या भक्त का अवतार माना गया। कोई उद्धव का अवतार समझा गया, कोई वाल्मीकि का, कोई हनुमानजी का तो कोई भगवान् की मुरली का। शिव के भी एकाधिक अवतार स्वीकार किय गये और अवतार - विश्वास इस हद तक पहुँचा कि यह विश्वास किया जाने लगा कि भगवान् नर रूप धारण करके नाना भाव से भक्त की सहायता करते रहे हैं। उसकी गाय चरा देते है।, उसका हाथ पकड़कर रास्ता दिखा देते हैं।

बुरे वाक्यों / कथनों को सुधार देते हैं, उसके घर का पहरा देते हैं और ऐसे ही अन्य अनेक कार्य करते हैं। इस युग की सम्पूर्ण मानवीय उच्च साधनाओं के मूल में इस अवतारवादी भक्ति की प्रेरणा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न युगों में साहित्यिक साधनाओं के मूल में कोई-न-कोई व्यापक मानवीय विश्वास होता है। आधुनिक युग का यह व्यापक विश्वास मानवतावाद है। इसे मध्ययुग के उस मानवतावाद से घुला नहीं देना चाहिए जिसमें किसी-न-किसी रूप में यह स्वीकार किया गया था कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है और भगवान् अपनी सर्वोत्तम लीलाओं का विस्तार नर रूप धारण करके ही करते हैं। इस विश्वास की सबसे बड़ी बात है इसकी ऐहिक दृष्टि और मनुष्य के मूल्य और महत्त्व की मर्यादा का बोध इस नवीन मानवतावाद स्वीकार करने युक्ति संगत परिणाम हो सकता है मनुष्य की मुक्ति।

आर्थिक शोषणों से मनुष्य को मुक्त किया जाए, क्योंकि मनुष्य के जीवन का बड़ा मूल्य है। मनुष्य पर अखण्ड विश्वास इसका प्रधान सम्बल है। जिन दिनों इंग्लैण्ड के साहित्य में भारत वर्ष का प्रथम परिचय हुआ, उन दिनों इस नव-मानवतावाद की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। इस सिद्धान्त को स्वीकार मरा ग्रेने कवि-चित्त उन रूढ़ियों से मुक्त हो जाता जो दीर्घकालीन रीति-नीति से करती हुई मनुष्य के चित्त पर आ गिरी होती हैं और कल्पना के प्रवाह में और आवेगों की अभिव्यक्ति में बाधा देती है। इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने के बाद कवि-चित्त में कल्पना के अविरल प्रवाह से घन संश्लिष्ट निविड़ आवेगों की वह उर्वर भूमि प्रस्तुत होती है जो रोमाण्टिक या स्वच्छन्दतावादी साहित्य के लिए बहुत ही उपयोगी होती है। ऐसे अविरल कल्पना प्रवाह का स्वाभाविक रूप है कवि चित्त की उन्मुक्तता। जब यह हर बार साहित्य में प्रकट होती है तो वह जीवन के सभी क्षेत्रों में अपना प्रभाव बिस्तार करती है। उस काल के अंग्रेजी साहित्य के मर्मज्ञों ने दिखाया है कि उन दिनों इंग्लैण्ड के सभी विचार क्षेत्रों में यह चित्तगन उन्मुक्तता अपना प्रभाव बिस्तार कर रही थी। इस युग में मनुष्य ने धर्म पर सन्देह किया, ईश्वर पर सन्देह किया, परम्परा समर्थित नैतिक दृष्टि भंगी पर सन्देह किया, परिपाटी विहित रसज्ञता पर सन्देह किया, परन्तु फिर भी यह युग अपूर्व विश्वास का युग है, क्योंकि मनुष्य ने अपने ऊपर अविश्वास नहीं किया। उसने मनुष्य की महिमा पर दृढ़तापूर्वक आस्था जमाये रखी। मनुष्य सब कुछ कर सकता है, वह प्रकृति के दुर्ग पर अपनी विजय पताका फहरा सकता है।

वह सृष्टि परस्परा की सबसे उत्तम परिणति है। नवीन साहित्य के मूल में यहीं विश्वास काम कर रहा था। कितने ही कवियों में निराशावाद का स्वर अवश्य था, पर मनुष्य की महिमा पर और सब बातों की महिमा पर जो मनुष्य के विशाल चित्त में स्नान करके निकली हैं, उनकी आस्था बनी रही।

आज संसार का संवदेनशील चित्त इस भयंकर दुष्परिणाम से व्याकुल हो गया है। सारे संसार के साहित्य के निष्ठावान मनीषियों के मन में आज एक ही प्रश्न है- यही क्या वास्तविक मानवतावाद है, जो मनुष्य को अकारण विनाश के गर्त में ढकेल रहा है? 21वी शताब्दी के पश्चिमी स्वप्न दर्शियों ने और इस देश के पिछले खेमे के महान् साहित्यकारों ने क्या मानवता की इसी महिमा का प्रचार किया? आज नाना स्वरों में वैचित्र्य संवलित आकार धारण करके एक ही उत्तर मानव चित्त की गम्भीरतम भूमिका से निकल रहा है मानवतावाद ठीक है, पर मुक्ति किसकी? क्या व्यक्ति मानव की? नहीं, सामाजिक मानवतावाद ही उत्तम समाधान है। मनुष्य को, व्यक्ति मनुष्य को नहीं, बल्कि समष्टि मनुष्य को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण से मुक्त कराना होगा - 'नान्यपन्था विद्यते अयनाय। मनुष्य को साहित्य को केन्द्र में प्रतिष्ठित करने के कारण ही आचार्य द्विवेदी आलोचना की समग्र और सन्तुलित दृष्टि के निर्माण पर बल देते हैं। वे साहित्य को सामाजिक सन्दर्भों में देखने और परखने का आग्रह करते हैं। सामाजिकता का यह आग्रह ही उन्हें 'मानवतावादी' बनाता है। वे जीवन्त मनुष्य और उसके समूह समाज को मनुष्य को सारी साधनाओं का केन्द्र और लक्ष्य मानते हैं। साहित्य भी उन्हीं रेखाओं में से एक है जो संस्कृति का चित्र उभारते हैं। वे कहते हैं- साहित्य को महान् बनाने के मूल में साहित्यकार का महान् संकल्प होता है। 'कबीर' उन्हें इसलिए प्रिय हैं उन्होंने सारे भेद-प्रभेदों से ऊपर उठकर मनुष्यत्व की प्रतिष्ठा पर बल दिया है। सूरदास ने राग चेतना और कालिदास ने अपनी अनुपम नाट्य कृति 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' मनुष्य और प्रकृति के साथ एकसूत्रता का विधान करती है और विश्वव्यापी भाव-चेतना के साथ व्यक्ति की भाव चेतना का तादात्मय स्थापित करती है। द्विवेदीजी इसी विकास यात्रा को मनुष्य की 'जय यात्रा' कहते हैं। यही कारण हैं कि द्विवेदी जी की गणना हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों में की जा सकती हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- काव्य के प्रयोजन पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- भारतीय आचार्यों के मतानुसार काव्य के प्रयोजन का प्रतिपादन कीजिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आचायों के मतानुसार काव्य प्रयोजन किसे कहते हैं?
  4. प्रश्न- पाश्चात्य मत के अनुसार काव्य प्रयोजनों पर विचार कीजिए।
  5. प्रश्न- हिन्दी आचायों के काव्य-प्रयोजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए?
  6. प्रश्न- आचार्य मम्मट के आधार पर काव्य प्रयोजनों का नाम लिखिए और किसी एक काव्य प्रयोजन की व्याख्या कीजिए।
  7. प्रश्न- भारतीय आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षणों का विश्लेषण कीजिए
  8. प्रश्न- हिन्दी के कवियों एवं आचार्यों द्वारा प्रस्तुत काव्य-लक्षणों में मौलिकता का अभाव है। इस मत के सन्दर्भ में हिन्दी काव्य लक्षणों का निरीक्षण कीजिए 1
  9. प्रश्न- पाश्चात्य विद्वानों द्वारा बताये गये काव्य-लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
  10. प्रश्न- आचार्य मम्मट द्वारा प्रदत्त काव्य-लक्षण की विवेचना कीजिए।
  11. प्रश्न- रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' काव्य की यह परिभाषा किस आचार्य की है? इसके आधार पर काव्य के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  12. प्रश्न- महाकाव्य क्या है? इसके सर्वमान्य लक्षण लिखिए।
  13. प्रश्न- काव्य गुणों की चर्चा करते हुए माधुर्य गुण के लक्षण स्पष्ट कीजिए।
  14. प्रश्न- मम्मट के काव्य लक्षण को स्पष्ट करते हुए उठायी गयी आपत्तियों को लिखिए।
  15. प्रश्न- 'उदात्त' को परिभाषित कीजिए।
  16. प्रश्न- काव्य हेतु पर भारतीय विचारकों के मतों की समीक्षा कीजिए।
  17. प्रश्न- काव्य के प्रकारों का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
  18. प्रश्न- स्थायी भाव पर एक टिप्पणी लिखिए।
  19. प्रश्न- रस के स्वरूप का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  20. प्रश्न- काव्य हेतु के रूप में निर्दिष्ट 'अभ्यास' की व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- 'रस' का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके अवयवों (भेदों) का विवेचन कीजिए।
  22. प्रश्न- काव्य की आत्मा पर एक निबन्ध लिखिए।
  23. प्रश्न- भारतीय काव्यशास्त्र में आचार्य ने अलंकारों को काव्य सौन्दर्य का भूल कारण मानकर उन्हें ही काव्य का सर्वस्व घोषित किया है। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में आपकी क्या आपत्ति है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- काव्यशास्त्रीय सम्प्रदायों के महत्व को उल्लिखित करते हुए किसी एक सम्प्रदाय का सम्यक् विश्लेषण कीजिए?
  25. प्रश्न- अलंकार किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- अलंकार और अलंकार्य में क्या अन्तर है?
  27. प्रश्न- अलंकारों का वर्गीकरण कीजिए।
  28. प्रश्न- 'तदोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि कथन किस आचार्य का है? इस मुक्ति के आधार पर काव्य में अलंकार की स्थिति स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- 'काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते' कथन किस आचार्य का है? इसका सम्बन्ध किस काव्य-सम्प्रदाय से है?
  30. प्रश्न- हिन्दी में स्वीकृत दो पाश्चात्य अलंकारों का उदाहरण सहित परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- काव्यालंकार के रचनाकार कौन थे? इनकी अलंकार सिद्धान्त सम्बन्धी परिभाषा को व्याख्यायित कीजिए।
  32. प्रश्न- हिन्दी रीति काव्य परम्परा पर प्रकाश डालिए।
  33. प्रश्न- काव्य में रीति को सर्वाधिक महत्व देने वाले आचार्य कौन हैं? रीति के मुख्य भेद कौन से हैं?
  34. प्रश्न- रीति सिद्धान्त की अन्य भारतीय सम्प्रदायों से तुलना कीजिए।
  35. प्रश्न- रस सिद्धान्त के सूत्र की महाशंकुक द्वारा की गयी व्याख्या का विरोध किन तर्कों के आधार पर किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- ध्वनि सिद्धान्त की भाषा एवं स्वरूप पर संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  37. प्रश्न- वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ ध्वनि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  38. प्रश्न- 'अभिधा' किसे कहते हैं?
  39. प्रश्न- 'लक्षणा' किसे कहते हैं?
  40. प्रश्न- काव्य में व्यञ्जना शक्ति पर टिप्पणी कीजिए।
  41. प्रश्न- संलक्ष्यक्रम ध्वनि को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
  42. प्रश्न- दी गई पंक्तियों में में प्रयुक्त ध्वनि का नाम लिखिए।
  43. प्रश्न- शब्द शक्ति क्या है? व्यंजना शक्ति का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  44. प्रश्न- वक्रोकित एवं ध्वनि सिद्धान्त का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
  45. प्रश्न- कर रही लीलामय आनन्द, महाचिति सजग हुई सी व्यक्त।
  46. प्रश्न- वक्रोक्ति सिद्धान्त व इसकी अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  47. प्रश्न- वक्रोक्ति एवं अभिव्यंजनावाद के आचार्यों का उल्लेख करते हुए उसके साम्य-वैषम्य का निरूपण कीजिए।
  48. प्रश्न- वर्ण विन्यास वक्रता किसे कहते हैं?
  49. प्रश्न- पद- पूर्वार्द्ध वक्रता किसे कहते हैं?
  50. प्रश्न- वाक्य वक्रता किसे कहते हैं?
  51. प्रश्न- प्रकरण अवस्था किसे कहते हैं?
  52. प्रश्न- प्रबन्ध वक्रता किसे कहते हैं?
  53. प्रश्न- आचार्य कुन्तक एवं क्रोचे के मतानुसार वक्रोक्ति एवं अभिव्यंजना के बीच वैषम्य का निरूपण कीजिए।
  54. प्रश्न- वक्रोक्तिवाद और वक्रोक्ति अलंकार के विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  55. प्रश्न- औचित्य सिद्धान्त किसे कहते हैं? क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्य के प्रकारों का वर्गीकरण कीजिए।
  56. प्रश्न- रसौचित्य किसे कहते हैं? आनन्दवर्धन द्वारा निर्धारित विषयों का उल्लेख कीजिए।
  57. प्रश्न- गुणौचित्य तथा संघटनौचित्य किसे कहते हैं?
  58. प्रश्न- प्रबन्धौचित्य के लिये आनन्दवर्धन ने कौन-सा नियम निर्धारित किया है तथा रीति औचित्य का प्रयोग कब करना चाहिए?
  59. प्रश्न- औचित्य के प्रवर्तक का नाम और औचित्य के भेद बताइये।
  60. प्रश्न- संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य के प्रकार के निर्धारण का स्पष्टीकरण दीजिए।
  61. प्रश्न- काव्य के प्रकारों का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- काव्य गुणों की चर्चा करते हुए माधुर्य गुण के लक्षण स्पष्ट कीजिए।
  63. प्रश्न- काव्यगुणों का उल्लेख करते हुए ओज गुण और प्रसाद गुण को उदाहरण सहित परिभाषित कीजिए।
  64. प्रश्न- काव्य हेतु के सन्दर्भ में भामह के मत का प्रतिपादन कीजिए।
  65. प्रश्न- ओजगुण का परिचय दीजिए।
  66. प्रश्न- काव्य हेतु सन्दर्भ में अभ्यास के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- काव्य गुणों का संक्षित रूप में विवेचन कीजिए।
  68. प्रश्न- शब्द शक्ति को स्पष्ट करते हुए अभिधा शक्ति पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- लक्षणा शब्द शक्ति को समझाइये |
  70. प्रश्न- व्यंजना शब्द-शक्ति पर प्रकाश डालिए।
  71. प्रश्न- काव्य दोष का उल्लेख कीजिए।
  72. प्रश्न- नाट्यशास्त्र से क्या अभिप्राय है? भारतीय नाट्यशास्त्र का सामान्य परिचय दीजिए।
  73. प्रश्न- नाट्यशास्त्र में वृत्ति किसे कहते हैं? वृत्ति कितने प्रकार की होती है?
  74. प्रश्न- अभिनय किसे कहते हैं? अभिनय के प्रकार और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  75. प्रश्न- रूपक किसे कहते हैं? रूप के भेदों-उपभेंदों पर प्रकाश डालिए।
  76. प्रश्न- कथा किसे कहते हैं? नाटक/रूपक में कथा की क्या भूमिका है?
  77. प्रश्न- नायक किसे कहते हैं? रूपक/नाटक में नायक के भेदों का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- नायिका किसे कहते हैं? नायिका के भेदों पर प्रकाश डालिए।
  79. प्रश्न- हिन्दी रंगमंच के प्रकार शिल्प और रंग- सम्प्रेषण का परिचय देते हुए इनका संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  80. प्रश्न- नाट्य वृत्ति और रस का सम्बन्ध बताइए।
  81. प्रश्न- वर्तमान में अभिनय का स्वरूप कैसा है?
  82. प्रश्न- कथावस्तु किसे कहते हैं?
  83. प्रश्न- रंगमंच के शिल्प का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  84. प्रश्न- अरस्तू के 'अनुकरण सिद्धान्त' को प्रतिपादित कीजिए।
  85. प्रश्न- अरस्तू के काव्यं सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  86. प्रश्न- त्रासदी सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
  87. प्रश्न- चरित्र-चित्रण किसे कहते हैं? उसके आधारभूत सिद्धान्त बताइए।
  88. प्रश्न- सरल या जटिल कथानक किसे कहते हैं?
  89. प्रश्न- अरस्तू के अनुसार महाकाव्य की क्या विशेषताएँ हैं?
  90. प्रश्न- "विरेचन सिद्धान्त' से क्या तात्पर्य है? अरस्तु के 'विरेचन' सिद्धान्त और अभिनव गुप्त के 'अभिव्यंजना सिद्धान्त' के साम्य को स्पष्ट कीजिए।
  91. प्रश्न- कॉलरिज के काव्य-सिद्धान्त पर विचार व्यक्त कीजिए।
  92. प्रश्न- मुख्य कल्पना किसे कहते हैं?
  93. प्रश्न- मुख्य कल्पना और गौण कल्पना में क्या भेद है?
  94. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के काव्य-भाषा विषयक सिद्धान्त पर प्रकाश डालिये।
  95. प्रश्न- 'कविता सभी प्रकार के ज्ञानों में प्रथम और अन्तिम ज्ञान है। पाश्चात्य कवि वर्ड्सवर्थ के इस कथन की विवेचना कीजिए।
  96. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के कल्पना सम्बन्धी विचारों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  97. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के अनुसार काव्य प्रयोजन क्या है?
  98. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के अनुसार कविता में छन्द का क्या योगदान है?
  99. प्रश्न- काव्यशास्त्र की आवश्यकता का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
  100. प्रश्न- रिचर्ड्स का मूल्य-सिद्धान्त क्या है? स्पष्ट रूप से विवेचन कीजिए।
  101. प्रश्न- रिचर्ड्स के संप्रेषण के सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- रिचर्ड्स के अनुसार सम्प्रेषण का क्या अर्थ है?
  103. प्रश्न- रिचर्ड्स के अनुसार कविता के लिए लय और छन्द का क्या महत्व है?
  104. प्रश्न- 'संवेगों का संतुलन' के सम्बन्ध में आई. ए. रिचर्डस् के क्या विचारा हैं?
  105. प्रश्न- आई.ए. रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना की समीक्षा कीजिये।
  106. प्रश्न- टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। इसका हिन्दी साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है?
  107. प्रश्न- सौन्दर्य वस्तु में है या दृष्टि में है। पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र के अनुसार व्याख्या कीजिए।
  108. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव तथा विकासक्रम पर एक निबन्ध लिखिए।
  109. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  110. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी समीक्षा का क्या अभिप्राय है? विवेचना कीजिए।
  111. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  112. प्रश्न- आलोचना की पारिभाषा एवं उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  113. प्रश्न- हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  114. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  115. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  116. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  117. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  118. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  119. प्रश्न- विखंडनवाद को समझाइये |
  120. प्रश्न- यथार्थवाद का अर्थ और परिभाषा देते हुए यथार्थवाद के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
  121. प्रश्न- कलावाद किसे कहते हैं? कलावाद के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए।
  122. प्रश्न- बिम्बवाद की अवधारणा, विचार और उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
  123. प्रश्न- प्रतीकवाद के अर्थ और परिभाषा का वर्णन कीजिए।
  124. प्रश्न- संरचनावाद में आलोचना की किस प्रविधि का विवेचन है?
  125. प्रश्न- विखंडनवादी आलोचना का आशय स्पष्ट कीजिए।
  126. प्रश्न- उत्तर-संरचनावाद के उद्भव और विकास को स्पष्ट कीजिए।
  127. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की काव्य में लोकमंगल की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
  128. प्रश्न- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि "आधुनिक साहित्य नयी मान्यताएँ" का उल्लेख कीजिए।
  129. प्रश्न- "मेरी साहित्यिक मान्यताएँ" विषय पर डॉ0 नगेन्द्र की आलोचना दृष्टि पर विचार कीजिए।
  130. प्रश्न- डॉ0 रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि 'तुलसी साहित्य में सामन्त विरोधी मूल्य' का मूल्यांकन कीजिए।
  131. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचनात्मक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  132. प्रश्न- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की साहित्य की नई मान्यताएँ क्या हैं?
  133. प्रश्न- रामविलास शर्मा के अनुसार सामंती व्यवस्था में वर्ण और जाति बन्धन कैसे थे?

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